في أحدٍ من الآحادْ..
دقّ القلبُ دقّاتٍ،
كأجراسِ الكنائسِ
ليلةَ الميلادْ..
وجاءَ الصوتُ يندهُني،
يُسحرُني..
يُقلقُني..
بلا ميعادْ..
كأوتارٍ يحرّكُها
نسيمُ الفجرِ
في الأعيادْ..
نعمْ.. أنتَ..
الذي أودعتَ في صُحُفي
في الأوراقِ..
بعضَ بذورِِ
هذا الحب..
والهجــــرانْ..
نعمْ.. أنتَ..!!
ومنْ غيرك أنت؟؟
أسريتَ بي
شوطاً من الأحزانْ..
نعمْ.. أنتَ..
الذي طوّحتَ أغنيةً
ونامَ الطيرُ والسّفانْ..
نعمْ.. أنتَ..!!
فكيفَ .. وكيفَ ؟؟ أكونُ أنا..؟
وكيفَ أكونُ مخلوقاً
بلا حبك..!!؟؟
بلا طيفٍ ..من الأملِ..
بلهفٍ جئتُ في عَجَلِ..
بلا شعرٍ.. بلا جُمَلِ..
وأنتَ الوردُ والجدولْ..
وأنتَ الآخرُ.. الأولْ..
فلا تعجبْ..!!
إذا غرتُ.. إذا قاسيتُ
في نفسي..
فأنتَ صلاتي الأولى..
مع الشطآنْ..
في الأورادْ..
وأرجعُ مرةً أخرى
لقلبكَ دقّةَ الميلادْ..
في أحدٍ من الآحادْ..!!
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