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الأحد، 15 فبراير 2015

المتاهةُ................. بقلم : باسم عبد الكريم الفضلي /// العراق



المتاهةُ تعني..أدري../

معجزةُ النقاء..
انه يفرضُ نفسَه..
في عالمِ الارقامِ الصماء..
فَــ....
تيهي..
وليكنْ دلالُكِ سُنَّةَ اقدار..
متجبِّرةِ الفرحه..
...(إقطعْ..فمن اين لإسمِِ بلا قامه..
أن يبدأَ بترسيمِ ملامح الاستفاقه..؟؟)

بدايةُُ اخري..:
كان بالامكان..
أن يضمَّ النحرُ المصلوب..
سماءَ الصرخةِ الموؤوده..
كان بالــ...لو
لو...لو
امتلك فحولةَ السراب..
فماذا تقولُ آيتُكِ..
ياكلَّ الثواباتِ..؟؟
أسمعي الدنيا..
ولاتكترثي..
اذا قامَ في قاعِ الخمود..
نداءُ المطر...
فلقد حَلَلتِ..
في عينِ الصباحاتِ..
ترانيمَ زهَر..
فجاءت اليكِ الاقدارُ..
طائعةً..
فلاامسِ..
لاغدَ..
محضُ روحكِ..
تُسَرمِدُ البِدءَ..
(إستفِقْ..)..
تكون كلُّ الخلجاتِ..
مناغاةَ همسِكِ..
جهراً..
واسمُكِ الصدى..
ولن يضيعَ..
ما لامسهُ بريقُه..
إلا في الضياء..
فا(لاسبيل ..) حلامُ لقاكِ..
غدتْ (أُصْ...حُ..)بيادرَ امان..
تمتدُّ..
حتى اعماقِ الاوهام..

( أُ صــــــــــــــحُ...)
انتِ..
بيني وبينَ مرِّ الحقيقه..
وجسرُُ باتجاهِِ واحد..
حينما يقصُدُهُ ..
المسكونُ بلعنتِه..
ينسى..
أنّ للعالم ..
وجهَ حرباءَ..
وثمارَ دهشةِِ..
بلا خلجان..
وزمانُكِ..
لامكانيةُ خرافتي..
فلا املك سوى...
أن اقاوم حقيقتي..
كي اصل اليكِ..
(لن اصحـــــــــو...)

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