بئس..
ثم بئس..
كالسيف هو الهجر،
أشد كثيرا
وأقسى..
كان هنا،
يمشي على الرمش الهوينى..
ما أصبح
لكنه أمسى..
أضحى بعيدا..
لعل وعسى..
خيالات أمني بها النفس.
من بات مثلي،
يفتش في الحرف عن شذاه،
يرجو في الناقص همسة..!؟
كان هنا..
ما برح القلب هواه،
ما فتئ الواجف في الليل
يرجو ويرجو لمسة.
بئس..
ثم بئس وبئس..
أضحى بعيدا..
فما لي أراه ولا أراه..
ما أصبح هنا..
لكن طيفه
ظل يطرق الباب خلسة.
القنيطرة 2019 - 9 - 18
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